तक़्सीम तुम मुताबिक़े-मेहनत न कर सके
तस्लीम हम मुताबिक़े-क़िस्मत न कर सके
जिन को तलाश मंज़िले-इंसानियत की थी
गुमराह उन को अहल-ए-सियासत न कर सके
तुझ पे कि जूठे हैं ये सभी लफ़्ज़ ख़ल्क़ के
हम फ़ाश अपनी पाक मोहब्बत न कर सके
हम आरियों से उनको बचाते रहे मगर
वो आँधियों से अपनी हिफ़ाज़त न कर सके
इक लौ हुए ख़याल तो कुछ रौशनी हुई
जब तक शरर थे चारा-ए-ज़ुल्मत न कर सके
तूफ़ान ज़लज़ला कभी सैलाब आ गया
पुर-अम्न तो ख़ुदा भी हुकूमत न कर सके
समझा कि तुम भी देख लो 'जानिब' जहान को
वैसे ये काम ईसा से हज़रत न कर सके
ग़ज़ल
तक़्सीम तुम मुताबिक़े-मेहनत न कर सके
महेश जानिब