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तक़्सीम तुम मुताबिक़े-मेहनत न कर सके | शाही शायरी
taqsim tum mutabiq-e-mehnat na kar sake

ग़ज़ल

तक़्सीम तुम मुताबिक़े-मेहनत न कर सके

महेश जानिब

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तक़्सीम तुम मुताबिक़े-मेहनत न कर सके
तस्लीम हम मुताबिक़े-क़िस्मत न कर सके

जिन को तलाश मंज़िले-इंसानियत की थी
गुमराह उन को अहल-ए-सियासत न कर सके

तुझ पे कि जूठे हैं ये सभी लफ़्ज़ ख़ल्क़ के
हम फ़ाश अपनी पाक मोहब्बत न कर सके

हम आरियों से उनको बचाते रहे मगर
वो आँधियों से अपनी हिफ़ाज़त न कर सके

इक लौ हुए ख़याल तो कुछ रौशनी हुई
जब तक शरर थे चारा-ए-ज़ुल्मत न कर सके

तूफ़ान ज़लज़ला कभी सैलाब आ गया
पुर-अम्न तो ख़ुदा भी हुकूमत न कर सके

समझा कि तुम भी देख लो 'जानिब' जहान को
वैसे ये काम ईसा से हज़रत न कर सके