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तपिश से भाग कर प्यासा गया है | शाही शायरी
tapish se bhag kar pyasa gaya hai

ग़ज़ल

तपिश से भाग कर प्यासा गया है

जगदीश राज फ़िगार

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तपिश से भाग कर प्यासा गया है
समुंदर की तरफ़ सहरा गया है

कुआँ मौजूद है जल भी मयस्सर
वो मेरे घर से क्यूँ तिश्ना गया है

दोबारा रूह उस में फूँक दो तुम
बदन जो फिर अकेला आ गया है

ज़माँ अपनी रविश पर तो है क़ाएम
मगर लम्हात में फ़र्क़ आ गया है

सफ़र में ताज़ा-दम होगा वो कैसे
जो घर ही से थका-माँदा गया है

बना होगा ख़स-ओ-ख़ाशाक से वो
जो नभ जलता हुआ देखा गया है

मुझे लहरों की कश्ती पर बिठा कर
भँवर की खोज में दरिया गया है

ज़मीं से भी तवक़्क़ो कुछ है ऐसी
दिमाग़-ए-चर्ख़ जब चकरा गया है

जो उतरा अर्श का इक एक तबक़ा
ज़मीं पर दायरा बनता गया है

न फ़िक्र-ए-वर्ता थी उस को ज़रा भी
वो कश्ती ज़ीस्त की खेता गया है

'फ़िगार' उस में वजूद उस का मिलेगा
जो जूयाँ बहर का क़तरा गया है