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तनूर-ए-वक़्त की हिद्दत से डर गए हम भी | शाही शायरी
tanur-e-waqt ki hiddat se Dar gae hum bhi

ग़ज़ल

तनूर-ए-वक़्त की हिद्दत से डर गए हम भी

कौसर सीवानी

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तनूर-ए-वक़्त की हिद्दत से डर गए हम भी
मगर तपिश में तपे तो निखर गए हम भी

जहाँ पहुँच के मुसाफ़िर के रुख़ बदलते हैं
रह-ए-हयात के उस मोड़ पर गए हम भी

जला दिया था सफ़ीना उतर के साहिल पर
जुनून-ए-फ़त्ह में क्या क्या न कर गए हम भी

जदीद रंग से मद्धम हुआ न रंग-ए-कुहन
क़दीम रंग में वो रंग भर गए हम भी

क़दम क़दम पे सितम सह के जी रहे थे जिसे
उसी हयात की बाँहों में मर गए हम भी

न कुछ जुनून-ए-तजस्सुस का पूछिए आलम
कहाँ कहाँ से न 'कौसर' गुज़र गए हम भी