तन्हाई का ग़म रूह के अंदर से निकालूँ
आवाज़ कोई दे तो क़दम घर से निकालूँ
दुनिया उसे पूजेगी ब-सद हुस्न-ए-अक़ीदत
मैं अपनी शबाहत को जो पत्थर से निकालूँ
खो जाऊँ कहीं तीरा-ख़लाओं में तो क्या हो
ख़ुद को जो तिरे दर्द के मेहवर से निकालूँ
जो दोस्त नज़र आते हैं बन जाएँगे दुश्मन
क्या मुँह से न सच बात भी इस डर से निकालूँ
हस्सास हो दुनिया तो जो नश्तर से है मख़्सूस
वो काम भी मैं बर्ग-ए-गुल-ए-तर से निकालूँ
दुश्वार सही फिर भी कोई सुल्ह का पहलू
हालात के बिगड़े हुए तेवर से निकालूँ
सदियों से लगी प्यास को 'माहिर' जो बुझा दे
वो जुरआ'-ए-ज़हराब समुंदर से निकालूँ
ग़ज़ल
तन्हाई का ग़म रूह के अंदर से निकालूँ
माहिर अब्दुल हई

