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तंग-ओ-महदूद बहुत हुस्न-ए-नज़र था पहले | शाही शायरी
tang-o-mahdud bahut husn-e-nazar tha pahle

ग़ज़ल

तंग-ओ-महदूद बहुत हुस्न-ए-नज़र था पहले

सय्यद रज़ा

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तंग-ओ-महदूद बहुत हुस्न-ए-नज़र था पहले
ज़ुल्फ़-ओ-रुख़सार पे मौक़ूफ़ हुनर था पहले

आने-जाने का सरोकार कहाँ से आया
कोई जादा न मुसाफ़िर न सफ़र था पहले

अब भी गर्दिश में मिरी धूप रहा करती है
यही साया जो उधर है ये इधर था पहले

दर-ओ-दीवार से आज़ाद बयाबाँ फिर हो
अपने शोरीदा-सरों का यही घर था पहले

मिरी तलवार पे है रज़्म पुरानी लिक्खी
मिरे ख़ामोश लहू में भी भँवर था पहले

ये तसव्वुर भी पला आब-ओ-हवा में मेरी
इस ज़मीं पर न खड़ा ऐसा शजर था पहले