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तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं | शाही शायरी
tamashe ki shaklen ayan ho gai hain

ग़ज़ल

तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
बहारें बहुत याँ ख़िज़ाँ हो गई हैं

ख़बर पस-रवों से तुम उन की न पूछो
जो रूहें अदम को रवाँ हो गई हैं

निकाली हैं जो हम ने औज-ए-सुख़न से
ज़मीनें वो सब आसमाँ हो गई हैं

उन्हें फ़र्ज़ है तीर का किस के सज्दा
जो मेवे की शाख़ें कमाँ हो गई हैं

वो बुत क़त्अ करता है ज़ुल्फ़ों को शायद
नज़ाकत पर उस की गिराँ हो गई हैं

टुक ऐ बाग़बाँ रहम कर बुलबुलों पर
ख़िज़ाँ में ये बे-आशियाँ हो गई हैं

मैं रोया हूँ याँ तक जुदाई में तेरी
कि आँखें मिरी नावदाँ हो गई हैं

जुदाई में उस ज़ुल्फ़ की मिस्ल-ए-शाना
मिरी उँगलियाँ उस्तुख़्वाँ हो गई हैं

रुख़ उस का मैं ऐ 'मुसहफ़ी' क्यूँ कि देखूँ
निगाहें मिरी बद-गुमाँ हो गई हैं