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तमाम उम्र की तन्हाइयों पे भारी थी | शाही शायरी
tamam umr ki tanhaiyon pe bhaari thi

ग़ज़ल

तमाम उम्र की तन्हाइयों पे भारी थी

सलीम शुजाअ अंसारी

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तमाम उम्र की तन्हाइयों पे भारी थी
वो एक शाम तिरे साथ जो गुज़ारी थी

उफ़ुक़ पे लिखता रहा आफ़्ताब तहरीरें
मगर बयाज़-ए-ज़मीं रौशनी से आरी थी

सफ़ीर-ए-सुब्ह की आहट पे हो गई बेदार
ग़ुनूदगी में जो ख़्वाबीदा शब-ख़ुमारी थी

उसी ने कर दिया पैवस्त पीठ में ख़ंजर
वो शख़्स जिस की रिफ़ाक़त से पीठ भारी थी

दिल-ओ-दिमाग़ ने फिर हाशिए तराश लिए
कई दिनों से तबीअत में नागवारी थी

जो बात तर्क-ए-तअल्लुक़ के मोड़ तक पहुँची
ख़ता तुम्हारी नहीं थी ख़ता हमारी थी

जवाब दे दिए 'सालिम' हयात ने मुझ को
मगर सवालिया इक इक जवाब-दारी थी