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तमाम-उम्र की ग़फ़लत के बा'द ख़्वाब आया | शाही शायरी
tamam-umr ki ghaflat ke baad KHwab aaya

ग़ज़ल

तमाम-उम्र की ग़फ़लत के बा'द ख़्वाब आया

साक़िब लखनवी

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तमाम-उम्र की ग़फ़लत के बा'द ख़्वाब आया
उठा जो पर्दा-ए-हस्ती मुझे हिजाब आया

अजल-नसीब था शाम-ए-विसाल ख़्वाब आया
वो बे-हिजाब हुए तो मुझे हिजाब आया

बला है अहद-ए-जवानी से ख़ुश न हो ऐ दिल
सँभल कि उम्र की दुनिया में इंक़लाब आया

बढ़ाए हौसले दरिया-दिली ने साक़ी की
ज़रा से जाम में सौ बार आफ़्ताब आया

कोई सदा नहीं आती कि कौन है क्या है
कहाँ भटक के दिल-ए-ख़ानुमाँ-ख़राब आया

उम्मीद-ओ-बीम में रक्खा तमाम रात मुझे
कभी नक़ाब उठाई कभी हिजाब आया

ज़माने वालों को पहचानने दिया न कभी
बदल बदल के लिबास अपने इंक़लाब आया

सिवाए यास न कुछ गुम्बद-ए-फ़लक से मिला
सदा भी दी तो पलट कर वही जवाब आया

उड़ा के होश हुआ हो गई तजल्ली-ए-तूर
सभों से आँख चुराता हुआ हिजाब आया

हरीफ़-ए-मय नहीं समझा तो क्यूँ मिरी जानिब
लहू के घूँट पिए साग़र-ए-शराब आया

हटे न अपनी तबीअत से हुस्न-ओ-इश्क़ कभी
हज़ार बार ज़माने में इंक़लाब आया

सुनाईं क्या तुम्हें नैरंग-ए-इश्क़ का क़िस्सा
तमाम-उम्र न आँखें खुलीं न ख़्वाब आया

खटक वो दिल में ही पैदा जो आज तक न हुई
समझ रहा हूँ कि तिफ़्ली गई शबाब आया

कफ़न पिन्हा दिया 'साक़िब' सनम-परस्ती ने
ख़ुदा के सामने जाते हुए हिजाब आया