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तमाम उम्र की आवारगी पे भारी है | शाही शायरी
tamam umr ki aawargi pe bhaari hai

ग़ज़ल

तमाम उम्र की आवारगी पे भारी है

शबनम रूमानी

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तमाम उम्र की आवारगी पे भारी है
वो एक शब जो तिरी याद में गुज़ारी है

सुना रहा हूँ बड़ी सादगी से प्यार के गीत
मगर यहाँ तो इबादत भी कारोबारी है

निगाह-ए-शौक़ ने मुझ को ये राज़ समझाया
हया भी दिल की नज़ाकत पे ज़र्ब-ए-कारी है

मुझे ये ज़ोम कि मैं हुस्न का मुसव्विर हूँ
उन्हें ये नाज़ कि तस्वीर तो हमारी है

ये किस ने छेड़ दिया रुख़्सत-ए-बहार का गीत
अभी तो रक़्स-ए-नसीम-ए-बहार जारी है

ख़फ़ा न हो तो दिखा दें हम आइना तुम को
हमें क़ुबूल कि सारी ख़ता हमारी है

जहाँ-पनाह-ए-मोहब्बत जनाब 'शबनम' हैं
ज़बान-ए-शेर में फ़रमान-ए-शौक़ जारी है