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तमाम-तर उसी ख़ाना-ख़राब जैसा है | शाही शायरी
tamam-tar usi KHana-KHarab jaisa hai

ग़ज़ल

तमाम-तर उसी ख़ाना-ख़राब जैसा है

क़तील शिफ़ाई

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तमाम-तर उसी ख़ाना-ख़राब जैसा है
मिरे लहू का नशा भी शराब जैसा है

नहा रहा हूँ मैं उस के बदन की किरनों में
वो आदमी है मगर माहताब जैसा है

करूँ तलाश जवाहर तो रेत हाथ आए
समुंदरों का चलन भी सराब जैसा है

जला गया मुझे अपने बदन की ठंडक से
वो जिस का रंग दहकते गुलाब जैसा है

'क़तील' काम-ओ-दहन अपना साथ दें कि न दें
वफ़ा का ज़ाइक़ा लेकिन शबाब जैसा है