तमाम तारों को जैसे क़मर से जोड़ा है
मिरी जबीं को तिरे संग-ए-दर से जोड़ा है
ख़ुदा ने ख़ुद को ब-ज़ाहिर छुपा के रक्खा है
हमारे दिल को न जाने किधर से जोड़ा है
विसाल-ओ-हिज्र की तरतीब उल्टी रक्खी है
इधर का सिलसिला उस ने उधर से जोड़ा है
ख़ुदा ने सादा क़लम से बनाया हम सब को
तिरे वजूद को अपने हुनर से जोड़ा है
ये चाँद भी तो तिरे हुस्न का भिकारी है
तुम्हारे हुस्न को किस ने क़मर से जोड़ा है
तमाम लज़्ज़तें दुनिया के दिल में रक्खी हैं
ख़ुदा ने सुख को मगर अपने घर से जोड़ा है
तमाम मिदहतें वक़्फ़-ए-ब-नाम-ए-अहमद हैं
तमाम ज़िक्र को इस ताजवर से जोड़ा है
ग़ज़ल
तमाम तारों को जैसे क़मर से जोड़ा है
हस्सान अहमद आवान