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तमाम शहर में उस जैसा ख़स्ता-हाल न था | शाही शायरी
tamam shahr mein us jaisa KHasta-haal na tha

ग़ज़ल

तमाम शहर में उस जैसा ख़स्ता-हाल न था

फ़ारूक़ बख़्शी

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तमाम शहर में उस जैसा ख़स्ता-हाल न था
मगर वो शख़्स कि फिर भी कोई मलाल न था

ये और बात मैं अपनी अना में क़ैद रहा
वगर्ना उस का पिघलना तो कुछ मुहाल न था

बिछड़ गया है तो ये कह के दिल को बहलाऊँ
वजूद उस का मिरे हक़ में नेक-फ़ाल न था

समझ रहा था मुहाफ़िज़ जिसे मैं बरसों से
मुझी को क़त्ल करेगा ये एहतिमाल न था

सिमट गई है सभी के ख़ुलूस की चादर
ये जज़्बा पहले तो इस दर्जा पाएमाल न था

ख़मोश सुनते रहे सब अमीर-ए-शहर का हुक्म
किसी के लब पे कोई हर्फ़-ए-इश्तिआ'ल न था