तमाम शहर में कोई भी रू-शनास न था
ख़ता यही थी कि लहजा पुर-इल्तिमास न था
फिर उस ने किस लिए रक्खे हवा पे अपने क़दम
वो गर्द गर्द था सूखे लबों की प्यास न था
मैं अपने आप लुटा आसमाँ की ख़्वाहिश से
ज़मीं का चेहरा मिरी नींद से उदास न था
ये किस ने आँख को नंगा किया है दरिया में
महकती रेत पे कोई भी बे-लिबास न था
उदास हो के सजा कार्नस के पत्थर पर
ज़मीं पे टूट के गिरता मैं वो गिलास न था
ग़ज़ल
तमाम शहर में कोई भी रू-शनास न था
ज़फ़र सिद्दीक़ी