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तमाम रंग हवा हो गए कहानी से | शाही शायरी
tamam rang hawa ho gae kahani se

ग़ज़ल

तमाम रंग हवा हो गए कहानी से

जालिब नोमानी

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तमाम रंग हवा हो गए कहानी से
ज़मीन काँप रही है उतरते पानी से

वो इक परिंदा-ए-आतिश जो आग पीता था
असीर हो गया अपनी ही ख़ुश-बयानी से

शिकार छुप गए अपनी पनाह-गाहों में
कमान टूट गई उस की खींचा-तानी से

जो खेल खेल रहे थे हवाओं की शह पर
वो खेल ख़त्म हुआ मर्ग-ए-ना-गहानी से

ख़ुद अपने आप से लर्ज़ां रही उलझती रही
उठा न बार-ए-गराँ रात की जवानी से

वरक़ वरक़ पे चला तेशा-ए-क़लम लेकिन
न कोई लफ़्ज़ जुदा हो सका मआनी से