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तमाम रात पड़ी थी कि दिन निकल आया | शाही शायरी
tamam raat paDi thi ki din nikal aaya

ग़ज़ल

तमाम रात पड़ी थी कि दिन निकल आया

कृष्ण कुमार तूर

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तमाम रात पड़ी थी कि दिन निकल आया
अभी तो आँख लगी थी कि दिन निकल आया

यक़ीं हो पुख़्ता तो फिर शब बदल भी सकती है
ये बात उस ने कही थी कि दिन निकल आया

ये मोजज़ा भी हमीं पर तमाम होना था
वो बस ज़रा सा हँसी थी कि दिन निकल आया

मैं दिन निकलने का वैसे भी मुंतज़िर था बहुत
ये जान ख़्वाब हुई थी कि दिन निकल आया

सहर से पहले भला दिन कहाँ निकलता है
ज़रा सी बात बनी थी कि दिन निकल आया

ज़रा सा दर्द हुआ था कि दिल चमक उट्ठा
ज़रा सी सुब्ह हुई थी कि दिन निकल आया

करें जो ग़ौर यही है निज़ाम-ए-क़ुदरत 'तूर'
ये रात ख़त्म हुई थी कि दिन निकल आया