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तमाम रात बुझेंगे न मेरे घर के चराग़ | शाही शायरी
tamam raat bujhenge na mere ghar ke charagh

ग़ज़ल

तमाम रात बुझेंगे न मेरे घर के चराग़

हबाब तिर्मिज़ी

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तमाम रात बुझेंगे न मेरे घर के चराग़
कि ये चराग़ हैं ख़ून-ए-दिल-ओ-जिगर के चराग़

इन आँसुओं को सितारे सलाम करते हैं
बुझा सको तो बुझा दो ये चश्म-ए-तर के चराग़

हुआ न ऐसा चराग़ाँ कभी सर-ए-मक़्तल
हथेलियों पे हैं रौशन बुरीदा-सर के चराग़

उन्हीं पे चलने से मंज़िल मिलेगी हम-सफ़रो
ये नक़्श-ए-पा हैं किसी के कि रहगुज़र के चराग़

इस अंजुमन में उजाला रहेगा सदियों तक
जला रहा हूँ मुसलसल दिल-ओ-नज़र के चराग़

ये लाल-क़िलअ' ये दीवार-ए-चीं ये ताज-महल
ये सब के सब हैं जलाए हुए बशर के चराग़

'हबाब' शहर-ए-सबा में वो क़ुमक़ुमों की बहार
गली गली में फ़रोज़ाँ थे सीम-ओ-ज़र के चराग़