तमाम ख़ुशियाँ तमाम सपने हम एक दूजे के नाम कर के
निभाएँ उल्फ़त की सारी रस्में वफ़ाओं का एहतिमाम कर के
न दूर दिल से कभी तू जाना दिल-ओ-जिगर में मक़ाम कर के
पियाला-ए-इश्क़ उलट न देना ऐ साक़िया मय-ब-जाम कर के
रही न मुझ में सकत ज़रा भी कि ज़ुल्म तेरे सहूँ मुसलसल
मिलेगा क्या तुझ को ऐ सितमगर ग़मों का यूँ अज़दहाम कर के
मैं इन की नज़रों के तीर खा कर तड़प रहा हूँ यहाँ पे लेकिन
वो कितने बे-फ़िक्र लग रहे हैं सुकून मेरा हराम कर के
मिटानी है जो दिलों की दूरी तो फ़ल्सफ़ा है ये आज़मूदा
चराग़-ए-उल्फ़त जलाएँ हम तुम दिलों की नफ़रत को राम कर के
मसर्रतों के हुसूल का है जहाँ में बस इक यही तरीक़ा
कि सादगी से निबाह कर लो तलब के जिन को ग़ुलाम कर के
जहान-ए-दिल की इस इज़्तिरारी से बाहर आ कर चलो चलें 'शाद'
ख़ुशी की महफ़िल को फिर सजाएँ उदासियों को हराम कर के
ग़ज़ल
तमाम ख़ुशियाँ तमाम सपने हम एक दूजे के नाम कर के
शमशाद शाद