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टलते हैं कोई हाथ चले या ज़बाँ चले | शाही शायरी
Talte hain koi hath chale ya zaban chale

ग़ज़ल

टलते हैं कोई हाथ चले या ज़बाँ चले

फ़िदवी लाहौरी

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टलते हैं कोई हाथ चले या ज़बाँ चले
हम दाद-ख़्वाह साथ हैं उस के जहाँ चले

क्या हम-सरी हो तीर की उस तीर-ए-आह से
ये ये ही तीर है कि सदा बे-कमाँ चले

सर पे तू धर के ना'श हमारी को ता-मज़ार
हर इक क़दम पे रोते हुए ख़ूँ-फ़िशाँ चले

लाए थे सर पे धर के किस इख़्लास से हमें
बस आँख ओझल होते ही ऐ दोस्ताँ चले

यारों ने अपनी राह ली 'फ़िद्वी' हमीं रहे
वो चीज़ अब कहाँ है कि पूछे कहाँ चले