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तल्ख़ियाँ इस में बहुत कुछ हैं मज़ा कुछ भी नहीं | शाही शायरी
talKHiyan isMein bahut kuchh hain maza kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

तल्ख़ियाँ इस में बहुत कुछ हैं मज़ा कुछ भी नहीं

कलीम आजिज़

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तल्ख़ियाँ इस में बहुत कुछ हैं मज़ा कुछ भी नहीं
ज़िंदगी दर्द-ए-मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं

शम्अ' ख़ामोश भी रहते हुए ख़ामोश कहाँ
इस तरह कह दिया सब कुछ कि कहा कुछ भी नहीं

हम गदायान-ए-मोहब्बत का यही सब कुछ है
गरचे दुनिया यही कहती है वफ़ा कुछ भी नहीं

ये नया तर्ज़-ए-करम है तिरा ऐ फ़स्ल-ए-बहार
ले लिया पास में जो कुछ था दिया कुछ भी नहीं

हम को मा'लूम न था पहले ये आईन-ए-जहाँ
उस को देते हैं सज़ा जिस की ख़ता कुछ भी नहीं

वही आहें वही आँसू के दो क़तरे 'आजिज़'
क्या तिरी शाइ'री में इन के सिवा कुछ भी नहीं