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तल्ख़ी-ए-नौ शकर-आमेज़ हुई जाती है | शाही शायरी
talKHi-e-nau shakar-amez hui jati hai

ग़ज़ल

तल्ख़ी-ए-नौ शकर-आमेज़ हुई जाती है

मतरब निज़ामी

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तल्ख़ी-ए-नौ शकर-आमेज़ हुई जाती है
ज़िंदगी और दिल-आवेज़ हुई जाती है

किस ने लफ़्ज़ों पे ये चुपके से कमंदें फेंकीं
जो ज़बाँ है वो कम-आमेज़ हुई जाती है

दस्त-ए-क़ातिल में नज़र आती है इक शाख़-ए-गुलाब
ज़िंदगी फिर भी तो ख़ूँ-रेज़ हुई जाती है

महमिल-ए-वक़्त में रौशन हैं फ़रासत के चराग़
फिर भी औहाम की लौ तेज़ हुई जाती है

जब से गुलफ़ाम-निगारिश हुए ग़ालिब के ख़ुतूत
शाख़-ए-तहरीर भी गुल-रेज़ हुई जाती है

तिश्नगी बन के छलक जाएँ न अल्फ़ाज़ कहीं
गुफ़्तुगू होंटों पे लबरेज़ हुई जाती है

अब धुँदलकों के सहारे हैं ग़नीमत 'मुतरिब'
रौशनी फ़ितरत-ए-चंगेज़ हुई जाती है