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तलातुम-ख़ेज़ मंज़र हो गई हैं | शाही शायरी
talatum-KHez manzar ho gai hain

ग़ज़ल

तलातुम-ख़ेज़ मंज़र हो गई हैं

नाज़िर सिद्दीक़ी

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तलातुम-ख़ेज़ मंज़र हो गई हैं
मिरी आँखें समुंदर हो गई हैं

उड़ाना चाहती हैं ख़ाक मेरी
हवाएँ भी सितम-गर हो गई हैं

तिरी महकी हुई ज़ुल्फ़ों को छू कर
घटाएँ रूह-परवर हो गई हैं

हवा-ए-गर्म तेरी शोलगी से
ज़मीनें जल के पत्थर हो गई हैं

उजाले बढ़ रहे हैं मेरी जानिब
दुआएँ बार-आवर हो गई हैं

तिरे जल्वों की ताबानी सलामत
मिरी शामें मुनव्वर हो गई हैं

यही ग़म है कि 'नाज़िर' मेरी आहें
निकल कर घर से बाहर हो गई हैं