तलातुम-ख़ेज़ मंज़र हो गई हैं
मिरी आँखें समुंदर हो गई हैं
उड़ाना चाहती हैं ख़ाक मेरी
हवाएँ भी सितम-गर हो गई हैं
तिरी महकी हुई ज़ुल्फ़ों को छू कर
घटाएँ रूह-परवर हो गई हैं
हवा-ए-गर्म तेरी शोलगी से
ज़मीनें जल के पत्थर हो गई हैं
उजाले बढ़ रहे हैं मेरी जानिब
दुआएँ बार-आवर हो गई हैं
तिरे जल्वों की ताबानी सलामत
मिरी शामें मुनव्वर हो गई हैं
यही ग़म है कि 'नाज़िर' मेरी आहें
निकल कर घर से बाहर हो गई हैं
ग़ज़ल
तलातुम-ख़ेज़ मंज़र हो गई हैं
नाज़िर सिद्दीक़ी