तलाश जिस को मैं करता फिरा ख़राबों में
मिला वो शख़्स मुझे रात मेरे ख़्वाबों में
मैं उस को ग़ुर्फ़ा-ए-दिल में भला छुपाऊँ क्या
जो लफ़्ज़ लफ़्ज़ है बिखरा हुआ किताबों में
दम-ए-विसाल तिरी आँच इस तरह आई
कि जैसे आग सुलगने लगे गुलाबों में
वो आँख जिस से ग़ज़ल मेरी इकतिसाब हुई
वो आँख जागती रहती है मेरे ख़्वाबों में
महक जो उठती है 'अनवर-सदीद' उस गुल से
कहाँ वो ताज़ा महक काग़ज़ी गुलाबों में
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ग़ज़ल
तलाश जिस को मैं करता फिरा ख़राबों में
अनवर सदीद