तलाश-ए-क़ाफ़िया में उम्र सब गुज़ारी है
तू पुख़्तगी जिसे कहता है ख़ामकारी है
सभी हैं अपने मगर अजनबी से लगते हैं
ये ज़िंदगी है कि होटल में शब गुज़ारी है
वो सारे दिन रहा दफ़्तर में और रात ढले
नज़र के कासे में इक ख़्वाब का भिकारी है
कुछ ऐसा बिछड़ा हूँ ख़ुद से कि मिल नहीं सकता
अगरचे काम ब-ज़ाहिर ये इख़्तियारी है
न जाने क्यूँ मिरी आँखों में चुभ रही है आज
सफ़ेद सारी पे जो ये सियाह धारी है
मुझे क्लास में अक्सर ये क़ौल याद आया
वो कामयाब मोअल्लिम है जो मदारी है
ग़ज़ल
तलाश-ए-क़ाफ़िया में उम्र सब गुज़ारी है
आफ़ताब शम्सी