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तलाश दरिया की थी ब-ज़ाहिर सराब देखा | शाही शायरी
talash dariya ki thi ba-zahir sarab dekha

ग़ज़ल

तलाश दरिया की थी ब-ज़ाहिर सराब देखा

किश्वर नाहीद

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तलाश दरिया की थी ब-ज़ाहिर सराब देखा
वो कौन आँखें थीं जिन की ख़ातिर ये ख़्वाब देखा

जो रुत भी आए हमीं से गिर्या का रिज़्क़ माँगे
हमारी सूरत किसे ज़मीं इंतिख़ाब देखा

नदामतें बहते आँसुओं से शरह न पाएँ
सफ़ीना अपनी दुआ का मक़्तल रिकाब देखा

बरसती आँखों से सूखे तालाब भर न पाएँ
ये ग़म का दरिया मिसाल-ए-क़र्ज़-ए-सहाब देखा

कभी तो आँखों में उन की आबादियाँ खिलेंगी
वो बस्तियाँ उम्र भर जिन्हें ज़ेर-ए-आब देखा

अभी तो बख़िया-गरी को सोज़न ही काम आए
हिना की दहलीज़ पे तुलू-ए-हिजाब देखा

यक़ीं कि तिश्ना-लबी मुक़द्दर रक़म रहेगी
वुफ़ूर-ए-दरिया भी मिस्ल-ए-दरिया-ए-ख़्वाब देखा

जता गया सारी आदतें बस गले से लग के
उस एक अंजुम को चाँदनी के हिसाब देखा

ख़याल उस के बदन की गलियों को ढूँडता है
वो जिस को देखा तो हैरतों को नक़ाब देखा