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तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे | शाही शायरी
takmil-e-ishq jab ho ki sahra bhi chhoD de

ग़ज़ल

तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे

सेहर इश्क़ाबादी

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तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे
मजनूँ ख़याल-ए-महमिल-ए-लैला भी छोड़ दे

कुछ इक़्तिज़ा-ए-दिल से नहीं अक़्ल बे-नियाज़
तन्हा ये रह सके तो वो तन्हा भी छोड़ दे

या देख ज़ाहिद उस को पस-ए-पर्दा-ए-मजाज़
या ए'तिबार-ए-दीदा-ए-बीना भी छोड़ दे

कुछ लुत्फ़ देखना है तो सौदा-ए-इश्क़ में
ऐ सरफ़रोश सर की तमन्ना भी छोड़ दे

वो दर्द है कि दर्द सरापा बना दिया
मैं वो मरीज़ हूँ जिसे ईसा भी छोड़ दे

आँखें नहीं जो क़ाबिल-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल
तालिब से कह दो ज़ौक़-ए-तमाशा भी छोड़ दे

है बर्क़-पाशियों का गिला 'सेहर' को अबस
क्या उस के वास्ते कोई हँसना भी छोड़ दे