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तजल्ली गर तिरी पस्त ओ बुलंद उन को न दिखलाती | शाही शायरी
tajalli gar teri past o buland un ko na dikhlati

ग़ज़ल

तजल्ली गर तिरी पस्त ओ बुलंद उन को न दिखलाती

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ

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तजल्ली गर तिरी पस्त ओ बुलंद उन को न दिखलाती
फ़लक यूँ चर्ख़ क्यूँ खाता ज़मीं क्यूँ फ़र्श हो जाती

हिना तेरे कफ़-ए-पा को न उस शोख़ी से सहलाती
ये आँखें क्यूँ लहू रोतीं उन्हों की नींद क्यूँ जाती

अगर ये सर्द-मेहरी तुज को आसाइश न सिखलाती
तो क्यूँकर आफ़्ताब-ए-हुस्न की गर्मी में नींद आती

इलाही दर्द-ए-ग़म की सरज़मीं का हाल क्या होता
मोहब्बत गर हमारी चश्म-ए-तर से मेंह न बरसाती