तय हो सका न फ़ासला लम्बी उड़ान से
मैं ढेर हो के रह गया आख़िर तकान से
उस बे-गुनह की चीख़ ने क्या कुछ नहीं कहा
पर लोग छुप के देख रहे थे मकान से
तूफ़ान-ए-सद-ज़वाल से कश्ती बचाइए
ख़तरा न टलने वाला है ये बादबान से
रिश्तों की भीड़-भाड़ से वो भी अलग हुआ
मैं भी नजात पा गया वहम-ओ-गुमान से
जी चाहता है सारी थकन ओढ़ लूँ 'सहर'
आख़िर मैं और कितना लड़ूँ जिस्म ओ जान से

ग़ज़ल
तय हो सका न फ़ासला लम्बी उड़ान से
ख़ुर्शीद सहर