तहय्युर है बला का ये परेशानी नहीं जाती
कि तन ढकने पे भी जिस्मों की उर्यानी नहीं जाती
यहाँ अहद-ए-हुकूमत इज्ज़ का किस तौर आएगा
कि ताज-ओ-तख़्त की फ़ितरत से सुल्तानी नहीं जाती
बुझे सूरज पे भी आँगन मिरा रौशन ही रहता है
दहकते हों अगर जज़्बे तो ताबानी नहीं जाती
मुक़द्दर कर ले अपनी सी हम अपनी कर गुज़रते हैं
मुक़द्दर से अब ऐसे हार भी मानी नहीं जाती
अगर आता हूँ साहिल पर तो आँधी घेर लेती है
समुंदर में उतरता हूँ तो तुग़्यानी नहीं जाती
ये कैसे खुरदुरे मौसम गुज़ार आया हूँ मैं 'अंजुम'
कि ख़ुद मुझ से ही मेरी शक्ल पहचानी नहीं जाती
ग़ज़ल
तहय्युर है बला का ये परेशानी नहीं जाती
अंजुम ख़लीक़