तह में जो रह गए वो सदफ़ भी निकालिए
तुग़्यानियों का हाथ समुंदर में डालिए
अपनी हदों में रहिए कि रह जाए आबरू
ऊपर जो देखना है तो पगड़ी सँभालिये
ख़ुश्बू तो मुद्दतों की ज़मीं-दोज़ हो चुकी
अब सिर्फ़ पत्तियों को हवा में उछालिए
सदियों का फ़र्क़ पड़ता है लम्हों के फेर में
जो ग़म है आज का उसे कल पर न टालिए
आया ही था अभी मिरे लब पे वफ़ा का नाम
कुछ दोस्तों ने हाथ में पत्थर उठा लिए
कह दो सलीब-ए-शब से कि अपनी मनाए ख़ैर
हम ने तो फिर चराग़ सरों के जला लिए
दुनिया की नफ़रतें मुझे क़ल्लाश कर गईं
इक प्यार की नज़र मिरे कासे में डालिए
महसूस हो रहा है कुछ ऐसा मुझे 'क़तील'
नींदों ने जैसे आज की शब पर लगा लिए
ग़ज़ल
तह में जो रह गए वो सदफ़ भी निकालिए
क़तील शिफ़ाई