तह-ए-गिर्दाब तो बचना मिरा दुश्वार है फिर भी
किनारे दूर हैं टूटी हुई पतवार है फिर भी
थकन से चूर हूँ, सर रख दिया है उस के सीने पर
मुझे मा'लूम है ये रेत की दीवार है फिर भी
मता-ए-रिश्ता-ए-जाँ कारोबार-ए-मंफ़अत कब थी
ख़रीदारों के हल्क़े में सर-ए-बाज़ार है फिर भी
मिरी मुट्ठी में नाज़ुक पंखुड़ी महफ़ूज़ रहती है
बचाना संग-बारी में उसे दुश्वार है फिर भी
तिरे लहजे की शबनम जज़्ब कर दे कुछ नमी इस में
अगरचे दिल सुलगती रेत का अम्बार है फिर भी
चराग़-ए-आरज़ू है मुंतज़िर दहलीज़ पर मेरी
वो दूरी के धुँदलकों में बहुत लाचार है फिर भी
समुंदर तिश्नगी का अब सराब-ए-इश्क़ में ज़म है
शिकस्ता हाल मेरा शीशा-ए-पिंदार है फिर भी
ये मिटी चाक पर थमती नहीं है, इतनी गीली है
कठिन ये मरहला है, कूज़ा-गर ला-चार है फिर भी
ग़ज़ल
तह-ए-गिर्दाब तो बचना मिरा दुश्वार है फिर भी
परवीन शीर