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तह-ए-बदन कहीं बेदार होता जाता हूँ | शाही शायरी
tah-e-badan kahin bedar hota jata hun

ग़ज़ल

तह-ए-बदन कहीं बेदार होता जाता हूँ

फ़रहत एहसास

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तह-ए-बदन कहीं बेदार होता जाता हूँ
वो पास आता है जितना मैं सोता जाता हूँ

ज़मीन निकली चली जा रही है हाथों से
मैं आसमान-ए-मोहब्बत में खोता जाता हूँ

उधर वो मुझ से गुरेज़ाँ है मुझ पे हँसते हुए
इधर मैं उस के तआक़ुब में रोता जाता हूँ

हर एक लम्हा बनाते हैं मुझ को हाथ उस के
वो करता जाता है मुझ को मैं होता जाता हूँ

मैं काएनात का मज़दूर अशरफ़-ए-मख़्लूक़
कोई भी काम हो इक मैं ही जोता जाता हूँ

बदन की ख़ाक तो उड़ जाएगी हवा मैं कहीं
मगर वो पेड़ रहेंगे जो बोता जाता हूँ

वो तेग़-ए-कसरत-ए-मा'नी लगी तख़ल्लुस को
कि दो दो 'फ़र्हत'-ओ-'एहसास' होता जाता हूँ