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तबीब कहते हैं जुज़ वहम-ए-ख़्वाब कुछ भी नहीं | शाही शायरी
tabib kahte hain juz wahm-e-KHwab kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

तबीब कहते हैं जुज़ वहम-ए-ख़्वाब कुछ भी नहीं

काशिफ़ रफ़ीक़

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तबीब कहते हैं जुज़ वहम-ए-ख़्वाब कुछ भी नहीं
तो क्या जो हम ने सहे वो अज़ाब कुछ भी नहीं

हमारी दश्त-नवर्दी तुम्हारे काम आई
तुम्हें ये कौन बताता सराब कुछ भी नहीं

नज़ीर उस की मैं क्या दूँ कि सामने उस के
चराग़ माह सितारा गुलाब कुछ भी नहीं

तमाम उम्र किया मैं ने कार-ए-ला-हासिल
कि मद्ह-ए-हुस्न-ए-बुताँ का सवाब कुछ भी नहीं

कोई लतीफ़ सी शय हो तो हम पिएँ साक़ी
हम अहल-ए-दिल की नज़र में शराब कुछ भी नहीं

अगर में जज़्ब न कर पाँव रौशनी 'काशिफ़'
तो माह कुछ भी नहीं आफ़्ताब कुछ भी नहीं