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तबीअत इन दिनों औहाम की उन मंज़िलों पर है | शाही शायरी
tabiat in dinon auham ki un manzilon par hai

ग़ज़ल

तबीअत इन दिनों औहाम की उन मंज़िलों पर है

हुमैरा रहमान

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तबीअत इन दिनों औहाम की उन मंज़िलों पर है
दिल-ए-कम-हौसला काग़ज़ की गीली कश्तियों पर है

गुज़शता मौसमों में बुझ गए हैं रंग फूलों के
दरीचा अब भी मेरा रौशनी के ज़ावियों पर है

हज़ारों आबनूसी जंगलों का हुस्न क्या मअ'नी
हमें जब साँस लेना कीमियाई तजरबों पर है

कड़ा है मेरी अजरक पर बलोची काम शीशे का
किसी के अक्स की क़ौस-ए-क़ुज़ह सब आईनों पर है

मिरे आँगन में इक नन्ही गिलहरी का बसेरा है
बहुत मासूम सा इक नक़्श मेरी क्यारियों पर है

मैं उस पर अपने अंदर की हुमैरा वार आती हूँ
मगर वो बे-यक़ीनी में अभी पहली हदों पर है