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तबाही का अपनी निशाँ छोड़ आए | शाही शायरी
tabahi ka apni nishan chhoD aae

ग़ज़ल

तबाही का अपनी निशाँ छोड़ आए

कैफ़ अज़ीमाबादी

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तबाही का अपनी निशाँ छोड़ आए
वरक़-दर-वरक़ दास्ताँ छोड़ आए

हर इक अजनबी से पता पूछते हैं
तुझे ज़िंदगी हम कहाँ छोड़ आए

वही लोग जीने का फ़न जानते हैं
जो एहसास-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ छोड़ आए

निकल आए तन्हा तिरी रह-गुज़र पर
भटकने को हम कारवाँ छोड़ आए