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तबाही बस्तियों की है निगहबानों से वाबस्ता | शाही शायरी
tabahi bastiyon ki hai nigahbanon se wabasta

ग़ज़ल

तबाही बस्तियों की है निगहबानों से वाबस्ता

राही कुरैशी

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तबाही बस्तियों की है निगहबानों से वाबस्ता
घरों का रंज वीरानी है मेहमानों से वाबस्ता

सफ़र क़दमों से वाबस्ता है लेकिन रास्ता अपना
गुलिस्तानों से वाबस्ता न वीरानों से वाबस्ता

सदाक़त भी तो हो जाती है मक़्तूल-ए-फ़रेब आख़िर
हक़ीक़त भी तो हो जाती है अफ़्सानों से वाबस्ता

सुपुर्द-ए-ख़ाक हम ने ही किया कितने अज़ीज़ों को
हमीं ने कर दिए हैं फूल वीरानों से वाबस्ता

तही-दस्ती ने तन्हा कर दिया हर एक महफ़िल में
बुझी शमएँ नहीं रहती हैं परवानों से वाबस्ता

चराग़ों को रखा जाता है आँधी और तूफ़ाँ में
फ़रिश्तों को किया जाता है शैतानों से वाबस्ता

सहीफ़ों में कहीं तहरीर रौशन थी यही 'राही'
ज़मीं पर थे कभी इंसान इंसानों से वाबस्ता