ताज़ा फिर दानिश-ए-हाज़िर ने किया सेहर-ए-क़ादिम
गुज़र इस अहद में मुमकिन नहीं बे-चोब-ए-कलीम
अक़्ल अय्यार है सौ भेस बना लेती है
इश्क़ बेचारा न मुल्ला है न ज़ाहिद न हकीम
ऐश-ए-मंज़़िल है ग़रीबान-ए-मोहब्बत पे हराम
सब मुसाफ़िर हैं ब-ज़ाहिर नज़र आते हैं मुक़ीम
है गराँ-सैर ग़म-ए-राहीला-ओ-ज़ाद से तू
कोह ओ दरिया से गुज़र सकते हैं मानिंद-ए-नसीम
मर्द-ए-दरवेश का सरमाया है आज़ादी ओ मर्ग
है किसी और की ख़ातिर ये निसाब-ए-ज़र-ओ-सीम
ग़ज़ल
ताज़ा फिर दानिश-ए-हाज़िर ने किया सेहर-ए-क़ादिम
अल्लामा इक़बाल