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तअ'स्सुब की फ़ज़ा में ता'ना-ए-किरदार क्या देता | शाही शायरी
tassub ki faza mein tana-e-kirdar kya deta

ग़ज़ल

तअ'स्सुब की फ़ज़ा में ता'ना-ए-किरदार क्या देता

उनवान चिश्ती

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तअ'स्सुब की फ़ज़ा में ता'ना-ए-किरदार क्या देता
मुनाफ़िक़ दोस्तों के हाथ में तलवार क्या देता

अमीर-ए-शहर तो ख़ुद ज़र्द-रू था एक मुद्दत से
झरोके से वो अहल-ए-शहर को दीदार क्या देता

हमारे दिन को जो देता नहीं इक धूप का टुकड़ा
हमारी रात को वो चाँद का मेआ'र क्या देता

कहीं गोली कहीं गाली मोहब्बत से है दिल ख़ाली
ख़बर ये थी तो बच्चों को नया अख़बार क्या देता

बहुत दुश्वार है ख़ुद्दार रह कर ज़िंदगी करना
ख़ुशामद करने वाला सदक़ा-ए-दस्तार क्या देता

ख़ुद उस का साया भी उस से गुरेज़ाँ है मुसीबत में
मिरा हम-साया मुझ को साया-ए-दीवार क्या देता

सराए-जाँ में दानिस्ता मुसाफ़िर लुट गया वर्ना
कि दिल सा सख़्त-जाँ इक गुल-बदन को वार क्या देता