तारों में छुप गए कि गुलों में निहाँ रहे
मेरी नज़र ने ढूँढ लिया तुम जहाँ रहे
गुज़रे हुए ज़माने का कुछ तो निशाँ रहे
गर आशियाँ नहीं तो ग़म-ए-आशियाँ रहे
ये और बात है कि नज़र से निहाँ रहे
लेकिन वो साथ साथ रहे हम जहाँ रहे
उस को किसी मक़ाम पे महदूद क्यूँ करो
कौन-ओ-मकाँ बना के भी जो ला-मकाँ रहे
इक नक्श-ए-मुस्तक़िल वो ज़माने में बिन गए
जो बे-नियाज़-ए-ख़्वाहिश-ए-नाम-ओ-निशाँ रहे
क्यूँ कर यक़ीं करें कि जहाँ में ख़ुशी भी है
हम को तो ग़म ने घेर लिया हम जहाँ रहे
नाम-ओ-निशाँ के वास्ते मरता है क्यूँ बशर
जो साहब-ए-निशाँ थे कब उन के निशाँ रहे
कहता है ये गुलों का तबस्सुम बहुत समझ
दुनिया में दो-घड़ी भी अगर शादमाँ रहे
'शारिब' जमाल-ए-दोस्त का पर्दा तो रह गया
अच्छा हुआ हिजाब-ए-नज़र दरमियाँ रहे

ग़ज़ल
तारों में छुप गए कि गुलों में निहाँ रहे
शारिब लखनवी