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तारीख़ के सफ़्हात में कोई नहीं हम-सर मिरा | शाही शायरी
tariKH ke safhat mein koi nahin ham-sar mera

ग़ज़ल

तारीख़ के सफ़्हात में कोई नहीं हम-सर मिरा

काविश बद्री

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तारीख़ के सफ़्हात में कोई नहीं हम-सर मिरा
महव-ए-सफ़र है आज तक फेंका हुआ पत्थर मिरा

हर सम्त सेहन-ए-ज़ात में फैले हुए साए मिरे
बैठा है तख़्त-ए-फ़िक्र पर सिमटा हुआ दिलबर मिरा

क्या ख़ुश-नसीबी है मिरी मैं एक तन्हा फ़ौज हूँ
झूट और सच की जंग में काम आ गया लश्कर मिरा

माहौल सब का एक है आँखें वही नज़रें वही
सब से अलग राहें मिरी सब से जुदा मंज़र मिरा

इक रंग-ए-इस्तिग़राक़ है इक निकहत-ए-आवारगी
ठहरा हुआ गागर में है बहता हुआ सागर मिरा

दुनिया करेगी एक दिन औराक़-गर्दानी मिरी
याद आएगा अहबाब को गंजीना-ए-गौहर मिरा

'काविश' अना की क़ैद के दीवार-ओ-दर गिरने को हैं
इक आलम-ए-असग़र में है इक आलम-ए-अकबर मिरा