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तारीक ज़िंदगी को बनाने लगा है वो | शाही शायरी
tarik zindagi ko banane laga hai wo

ग़ज़ल

तारीक ज़िंदगी को बनाने लगा है वो

ख़ालिद रहीम

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तारीक ज़िंदगी को बनाने लगा है वो
सूरज से रौशनी को चुराने लगा है वो

लिख लिख के मेरे नाम अज़िय्यत के दश्त-ओ-दर
जागीर मेरे ग़म की बढ़ाने लगा है वो

एहसास की सलीब लिए चल रहा हूँ मैं
दश्त-ए-जुनूँ में शोर मचाने लगा है वो

मुझ से ही ले के मेरे सलीक़े की रौशनी
तहज़ीब की ज़बान सिखाने लगा है वो

तख़लीक़-ए-काएनात का गर मैं सबब रहा
फिर क्यूँ मिरा वक़ार घटाने लगा है वो

परवरदिगार मेरी शहादत क़ुबूल कर
तलवार ले के सामने आने लगा है वो

'ख़ालिद' मैं उस के हाथ की तहरीर था मगर
हर्फ़-ए-ग़लत समझ के मिटाने लगा है वो