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तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है | शाही शायरी
talluq ki nai ek rasm ab ijad karna hai

ग़ज़ल

तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है

हुमैरा राहत

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तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है
न उस को भूलना है और न उस को याद करना है

ज़बानें कट गईं तो क्या सलामत उँगलियाँ तो हैं
दर ओ दीवार पे लिख दो तुम्हें फ़रियाद करना है

सितारा ख़ुश-गुमानी का सजाया है हथेली पर
किसी सूरत हमें तो अपने दिल को शाद करना है

बना कर एक घर दिल की ज़मीं पर उस की यादों का
कभी आबाद करना है कभी बर्बाद करना है

तक़ाज़ा वक़्त का ये है न पीछे मुड़ के देखें हम
सो हम को वक़्त के इस फ़ैसले पर साद करना है