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तालिब-ए-दीद पे आँच आए ये मंज़ूर नहीं | शाही शायरी
talib-e-did pe aanch aae ye manzur nahin

ग़ज़ल

तालिब-ए-दीद पे आँच आए ये मंज़ूर नहीं

सफ़ी लखनवी

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तालिब-ए-दीद पे आँच आए ये मंज़ूर नहीं
दिल में है वर्ना वो बिजली जो सर-ए-तूर नहीं

दिल से नज़दीक हैं आँखों से भी कुछ दूर नहीं
मगर इस पे भी मुलाक़ात उन्हें मंज़ूर नहीं

हम को परवाना ओ बुलबुल की रक़ाबत से ग़रज़
गुल में वो रंग नहीं शम्अ में वो नूर नहीं

ख़ल्वत-ए-दिल न सही कूचा-ए-शहरग ही सही
पास रह कर न सही आप से कुछ दूर नहीं

ज़ौक़-ए-पाबंद-ए-वफ़ा क्यूँ रहे महरूम-ए-जफ़ा
इश्क़ मजबूर सही हुस्न तो मजबूर नहीं

ताबिश-ए-हुस्न ने जब डाल दिए हों पर्दे
मुमकिन आँखों से इलाज-ए-दिल-ए-रंजूर नहीं

लाओ मय-ख़ाने ही में काट न दें इतनी रात
मस्जिदें हो गईं मामूर ये मामूर नहीं

छेड़ दे साज़-ए-अनल-हक़ जो दोबारा सर-ए-दार
बज़्म-ए-रिंदाँ में अब ऐसा कोई मंसूर नहीं

कभी कैसे हो 'सफ़ी' पूछ तो लेता कोई
दिल-दही का मगर इस शहर में दस्तूर नहीं