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'ताबिश' हवस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ तक | शाही शायरी
tabish hawas-e-lazzat-e-azar kahan tak

ग़ज़ल

'ताबिश' हवस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ तक

ताबिश देहलवी

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'ताबिश' हवस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ तक
राहत से ये ग़म फिर भी मिरे यार कहाँ तक

हर रोज़ इक आवाज़ा अनल-हक़ का लगाएँ
देखें तो कि है सिलसिला-ए-दार कहाँ तक

हर रास्ते से मंज़िल-ए-हस्ती है बहुत दूर
जाएगा मिरे साथ ग़म-ए-यार कहाँ तक

हाँ ताना-ए-अग़्यार के नश्तर ही से खुल जाए
इक ज़ख़्म रहेगा लब-ए-गुफ़्तार कहाँ तक

हैं इस के तअ'ल्लुक़ से अज़ीज़ अहल-ए-जहाँ भी
ले जाएगी आख़िर हवस-ए-यार कहाँ तक

आईना-दर-आईना दर-आईना तिरा हुस्न
हैराँ हों तिरे तालिब-ए-दीदार कहाँ तक

होती ही नहीं सुब्ह-ए-क़यामत भी नुमूदार
जागेंगे शब-ए-हिज्र के बीमार कहाँ तक

फैली हुई हर सम्त कड़ी धूप है 'ताबिश'
जाएगा कोई साया-ए-दीवार कहाँ तक