तआ'क़ुब मेरा ख़ुशबू कर रही थी
मिरे ज़ख़्मों पे मरहम धर रही थी
मैं छेड़ूँ फिर वही साज़-ए-मोहब्बत
इशारे वो मुसलसल कर रही थी
हुआ दिन फ़िक्र-ए-दुनिया ने दबोचा
तुम्हारी याद तो शब भर रही थी
वो दिन भी थे कि तू ने अश्क पोंछे
तिरी मम्नून चश्म-ए-तर रही थी
हमारा नाम क्या सूरत नहीं याद
मुलाक़ात उन से तो अक्सर रही थी
सहर तक रात की रानी की ख़ुशबू
मिरी अँगनाई में दिन भर रही थी
ग़ज़ल
तआ'क़ुब मेरा ख़ुशबू कर रही थी
सलमा शाहीन