ता-सहर की है फ़ुग़ाँ जान के ग़ाफ़िल मुझ को
रात भर आज पुकारा है मिरा दिल मुझ को
दर्द-ओ-ग़म से जो तपाँ था वो मिला दिल मुझ को
इस लिए दफ़्न किया है लब-ए-साहिल मुझ को
बार-ए-हुस्न आप से लैला का उठाया न गया
न लिया क़ैस ने जिस को वो मिला दिल मुझ को
ग़ैर फिर ग़ैर हैं आख़िर हैं फिर अपने अपने
याद करता है तिरे पास मिरा दिल मुझ को
बार-ए-ख़ातिर ही अगर है तो इनायत कीजे
आप को हुस्न मुबारक हो मिरा दिल मुझ को
फ़स्ल-ए-गुल आते ही सहरा-ए-अदम को पहुँचा
रोकते रह गए अग़लाल-ओ-सलासिल मुझ को
मर गया अश्क जो आँखों से बहे आह के साथ
आ गई नींद हवा में लब-ए-साहिल मुझ को
क्या अदावत है कि जिस दिन से हुआ हूँ ज़ख़्मी
देख जाता है वो रश्क-ए-मह-ए-कामिल मुझ को
शब को तुम सोई थी क्या सू-ए-फ़लक मुँह कर के
नज़र आया न सहर तक मह-ए-कामिल मुझ को
पाँव तक ज़ुल्फ़ तिरी यार बढ़ आई शायद
आज भारी नज़र आती है सलासिल मुझ को
असर-ए-ज़ोफ़ से हूँ क़तरा-ए-अश्क-ए-ख़ूनी
रहम कर दे कफ़न-ए-दामन-ए-क़ातिल मुझ को
ग़ज़ल
ता-सहर की है फ़ुग़ाँ जान के ग़ाफ़िल मुझ को
तअशशुक़ लखनवी