स्वाँग भरता हूँ तिरे शहर में सौदाई का
कि यही हाल है अंदर से तमाशाई का
बज़्म के हाल पे अब हम नहीं कुढ़ने वाले
इंतिज़ामात में क्या दख़्ल तमाशाई का
हम तो सौ झूट भी बोलें वो अगर हाथ आए
कोई ठेका तो उठाया नहीं सच्चाई का
दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता को जा जा के दिखाएँ यारो
शहर में काम नहीं लाला-ए-सहराई का
लोग कहते हैं हवस को भी मोहब्बत जैसे
नाम पड़ जाए मुजाहिद किसी बलवाई का
ये नहीं है कि नवाज़े न गए हों हम लोग
हम को सरकार से तमग़ा मिला रुस्वाई का
उन को टूटा हुआ दिल हम भी दिखाएँगे 'सलीम'
कोई पूछ आए वो क्या लेते हैं बनवाई का

ग़ज़ल
स्वाँग भरता हूँ तिरे शहर में सौदाई का
सलीम अहमद