EN اردو
सवाद-ए-ग़म हो या बज़्म-ए-तरब कुछ भी नहीं होता | शाही शायरी
swad-e-gham ho ya bazm-e-tarab kuchh bhi nahin hota

ग़ज़ल

सवाद-ए-ग़म हो या बज़्म-ए-तरब कुछ भी नहीं होता

ख़ालिदा उज़्मा

;

सवाद-ए-ग़म हो या बज़्म-ए-तरब कुछ भी नहीं होता
ज़बाँ मरहम रक्खे या ज़ख़्म अब कुछ भी नहीं होता

चले आते हैं बे-मौसम की बारिश की तरह आँसू
बसा-औक़ात रोने का सबब कुछ भी नहीं होता

जो होता है तो बस इतना कि लफ़्ज़ों का भरम टूटे
सुख़न आता है अक्सर ता-ब-लब कुछ भी नहीं होता

कभी थे मेहरबाँ मौसम कभी सावन बरसता था
और अब धरती है सारी तिश्ना-लब कुछ भी नहीं होता

तमन्ना झाँकती है रौज़न-ए-ज़िंदाँ से छुप छुप कर
असीरी में मगर अंजाम-ए-शब कुछ भी नहीं होता

क़यामत सी गुज़रती है क़यामत आ नहीं जाती
कोई बे-जान हो या जाँ-ब-लब कुछ भी नहीं होता

जिबिल्लत सर उठा ले तो ख़स-ओ-ख़ाशाक है इंसाँ
बड़ा हो नाम या ऊँचा नसब कुछ भी नहीं होता

यहाँ होता है बाद-अज़-मर्ग वावैला बहुत लेकिन
कोई मर मर के जब जीता हो तब कुछ भी नहीं होता

ये दुनिया है यहाँ तारीख़ ही दोहराई जाती है
अनोखा कुछ नहीं होता अजब कुछ भी नहीं होता