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सूरत-ए-इश्क़ बदलता नहीं तू भी मैं भी | शाही शायरी
surat-e-ishq badalta nahin tu bhi main bhi

ग़ज़ल

सूरत-ए-इश्क़ बदलता नहीं तू भी मैं भी

तौक़ीर तक़ी

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सूरत-ए-इश्क़ बदलता नहीं तू भी मैं भी
ग़म की हिद्दत से पिघलता नहीं तू भी मैं भी

अब ज़माने में मोहब्बत है तमाशे की तरह
इस तमाशे से बहलता नहीं तू भी मैं भी

इन सुलगती हुई साँसों को नहीं देखते लोग
और समझते हैं कि जलता नहीं तू भी मैं भी

अपना नुक़सान बराबर का हुआ आँधी में
अब किसी शाख़ पे फलता नहीं तू भी मैं भी

ऐ समुंदर तिरी फैली हुई बाँहों की क़सम
अपनी मौजों से निकलता नहीं तू भी मैं भी

डगमगाते हैं क़दम डोलती है वक़्त की साँस
तार-ए-हस्ती पे सँभलता नहीं तू भी मैं भी

अब वो ग़ालिब है न वो अहल-ए-करम हैं 'तौक़ीर'
इश्क़ में भेस बदलता नहीं तू भी मैं भी