सूरज नए बरस का मुझे जैसे डस गया
तुझ से मिले हुए मुझे ये भी बरस गया
बहती रही नदी मिरे घर के क़रीब से
पानी को देखने के लिए मैं तरस गया
मिलने की ख़्वाहिशें सभी दम तोड़ती गईं
दिल में कुछ ऐसे ख़ौफ़ बिछड़ने का बस गया
दीवार ओ दर झुलसते रहे तेज़ धूप में
बादल तमाम शहर से बाहर बरस गया
तलवों में नर्म घास भी चुभने लगी 'नसीम'
सहरा कुछ इस तरह मिरे पैरों में बस गया
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ग़ज़ल
सूरज नए बरस का मुझे जैसे डस गया
इफ़्तिख़ार नसीम