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सूना लगा बग़ैर तिरे मुझ को सारा घर | शाही शायरी
suna laga baghair tere mujhko sara ghar

ग़ज़ल

सूना लगा बग़ैर तिरे मुझ को सारा घर

नासिर शहज़ाद

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सूना लगा बग़ैर तिरे मुझ को सारा घर
बेलें चढ़ीं गुलाब की जब बाथ-रूम पर

ऊपर वो गाँव नीचे लुढ़कती ढलान पर
मस्जिद को सज्दा-रेज़ ख़मीदा सी इक डगर

किन उलझनों में बच्चे को पढ़वाई नर्सरी
किन कोशिशों से तय हुआ इक साल इक सफ़र

आटा भी घी भी घर भी यहाँ क़ीमतन मिलें
क्यूँ आ गया मैं शहर में गाँव को छोड़ कर

लौ दे वो कल्पना कहीं जग दर्पना के द्वार
बरसों रुकें इधर कहीं सरसों झुकें उधर

तेरा मिलन ज़रूर भी दस्तूर भी सही
पड़ती हैं रास्ते में चनाबें बहुत मगर

तज़ईन भी ज़मीन भी सब कुछ इसी में है
मुख बोलता क़मर कसालिक, डोलती लगर

चिड़ियों का शोर चूल्हों से उठते धुएँ की कोर
सुब्हों के सब सुहाग, हवा, पर, सदा, गजर

हम बंधनों के बीर पिया प्राण में सरीर
मेरी वही डगर सखी मेरा वही नगर

छलके सुरूर गात से आनंद हाथ से
दे री सखी ख़बर गया गागर को कौन भर

दोनों तपस्या त्याग हैं दोनों बिरह बहाग
शुभ श्याम दिल के दर कहीं हृदय के बीच 'हर'